The following is just one of the several (hundred?) examples, the man wrote for one occasion but the poem can be interpreted to be relevant in contemporary contexts.
18 सितंबर को देहली और क़िले पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा हो गया। गोरों ने शहर में दाखील होते ही बेगुनाहों और बेनवांओं को क़त्ळ करना शुरु कीया। हाय इतने यार मरे के अब जो मैं मरूंगा तो मेरा कोई रोने वाला भी ना होगा। बिछड़े हुए क़्यामत को ही जमां हों तो हों, सो वाहां क्या ख़ाक जमां होंगे, सुन्नी अलग, शीया अलग, नेक जुदा, बद जुदा।
बस के दुशवार है हर काम का आसान होना
आदमी को भी मयसर नहीं इंसान होना
[दुशवार = difficult, मयसर = possible]
गीरीया चाहे है ख्रराबी मेरे काशाने की
दरो दीवार से टपके है बयाबां होना
[गीरीया = wretched, काशाने = of the house, बयाबां = deserted]
इश्रते क़त्ल गहे अहेले तमन्ना मत पूछ
इद-ए-नज़ारा है शम्शीर का उरीयां होना
[इश्रते क़त्ल गहे अहेले तमन्ना = desires of people in seeking joy by murder of others, शम्शीर = (my guess) some character in the religious text, the word itself means sword (symbol of strength/pride?), उरीयां = naked]
की मेरे क़्तल के बाद उसने जफा से तौबा
हाय उस ज़ूद पशेमां का पशेमां होना
[जफा = oppression, तौबा = Repentance, ज़ूद पशेमां = quickly embarrassed, पशेमां होना = be embarrassed]
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